कश्ती है घाट पर तू चले क्यूँ न दूर आज
कल बस चले चले न चले चल उठा तो ला
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दूसरा ऐसा कहाँ ऐ दश्त ख़ल्वत का मक़ाम
खाइए ये ज़हर कब तक खाए जाती है ये ज़ीस्त
अब जहाँ में बाक़ी है आह से निशाँ अपना
कर मुरत्तब कुछ नए अंदाज़ से अपना बयाँ
हिचकियों पर हो रहा है ज़िंदगी का राग ख़त्म
तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे
मेरे सीने में नहीं है तो ये समझो कि न था
वफ़ा पर नाज़ हम को उन को अपनी बेवफ़ाई पर
अब कहें किस से कि उन से बात करना है गुनाह
हाँ जान तो देंगे मगर ऐ मौत अभी दम ले
रक्खी हुई है सारी ख़ुदाई तिरे लिए
सब कुछ मुझे मुश्किल है न पूछो मिरी मुश्किल