कर मुरत्तब कुछ नए अंदाज़ से अपना बयाँ
मरने वाले ज़िंदगी चाहे तो अफ़्साने में आ
Javed Akhtar
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दूसरों को क्या कहिए दूसरी है दुनिया ही
तुम्हारी बात का इतना है ए'तिबार हमें
हमें कम-बख़्त एहसास-ए-ख़ुदी उस दर पे ले बैठा
इस ग़म को ग़म कहें तो कहें सौ में हम ग़लत
रिंद की काएनात क्या है ख़ाक
चराग़ ले के फिरा ढूँढता हुआ घर घर
इक हर्फ़-ए-शिकायत पर क्यूँ रूठ के जाते हो
नहीं रुकता तो जा ख़ुदा-हाफ़िज़
न मय-कशी न इबादत हमारी आदत है
मुझ को मालूम हुआ अब कि ज़माना तुम हो
फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
वहाँ से ले गई नाकाम बदबख़्तों को ख़ुद-कामी