फिर चाक-दामनी की हमें क़द्र क्यूँ न हो
जब और दूसरा नहीं कोई लिबास पास
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तो आख़िर साज़-ए-हस्ती क्यूँ तरब-आहंग-ए-महफ़िल था
रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
हाँ जान तो देंगे मगर ऐ मौत अभी दम ले
उसे पा-ब-गिल न रखता जो ख़याल-ए-तीरा-बख़्ती
अब कहाँ गुफ़्तुगू मोहब्बत की
तरीक़-ए-दिलबरी काफ़ी नहीं हर-दिल-अज़ीज़ी को
कैफ़ियत-ए-तज़ाद अगर हो न बयान-ए-शे'र में
ऐसे बोहतान लगाए कि ख़ुदा याद आया
कीजिए कार-ए-ख़ैर में हाजत-ए-इस्तिख़ारा क्या
जो बला आती है आती है बला की 'नातिक़'
बादा-मस्ती आ करामत हो के मयख़ाने में आ
तुम अगर जाओ तो वहशत मिरी खा जाए मुझे