रह के अच्छा भी कुछ भला न हुआ
मैं बुरा हो गया बुरा न हुआ
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रिया-कारी के सज्दे शैख़ ले बैठेंगे मस्जिद को
सुब्ह-ए-पीरी में फिरा शाम-ए-जवानी का गया
ख़त्म करना चाहता हूँ पेच-ओ-ताब-ए-ज़िंदगी
मजनूँ से जो नफ़रत है दीवानी है तू लैला
किस को मेहरबाँ कहिए कौन मेहरबाँ अपना
वस्फ़-ए-जमाल-ए-ज़ौक़ है अहल-ए-निगाह का
जीने देगा भी हमें ऐ दिल जिएँ भी या न हम
ग़म-ओ-अंदोह का लश्कर भी चला आता है
पहुँच गए तो करेंगे इधर-उधर की तलाश
अब कहाँ गुफ़्तुगू मोहब्बत की
रहते हैं इस तरह से ग़म-ओ-यास आस-पास
बे-ख़ुद-ए-शौक़ हूँ आता है ख़ुदा याद मुझे