बग़ैर पूछे मिरे सर में भर दिया मज़हब
मैं रोकता भी तो कैसे कि मैं तो बच्चा था
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ग़म की ढलवान तक आए तो ख़ुशी तक पहुँचे
हैरत-अंगेज़ हुआ चाहती है
और तो अपनी क़िस्मत में क्या लिक्खा है
हम वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धर कर ताक पर
किस को फ़ुर्सत है जो हर्फ़ों की हरारत समझाए
मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते
उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं
जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा
और तआ'रुफ़ हमारा हो भी क्या
नए सफ़र का हर इक मोड़ भी नया था मगर
ग़नीमत से गुज़ारा कर रहा हूँ