अब हवाओं के दाम खुलने हैं
ख़ुशबुओं का तो हो चुका सौदा
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जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा
मिरा साया मिरे बस में नहीं है
हम तो उस के ज़ेहन की उर्यानियों पर मर मिटे
बग़ैर पूछे मिरे सर में भर दिया मज़हब
ग़नीमत से गुज़ारा कर रहा हूँ
मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते
भुला दिया है जो तू ने तो कुछ मलाल नहीं
नए सफ़र का हर इक मोड़ भी नया था मगर
कितनी बार बताऊँ तुझ को कैसा लगता है
किस को फ़ुर्सत है जो हर्फ़ों की हरारत समझाए