हम तो उस के ज़ेहन की उर्यानियों पर मर मिटे
दाद अगरचे दे रहे हैं जिस्म और पोशाक पर
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मकानों के नगर में हम अगर कुछ घर बना लेते
बग़ैर पूछे मिरे सर में भर दिया मज़हब
ये अजूबा तो हो नहीं सकता
ग़म की ढलवान तक आए तो ख़ुशी तक पहुँचे
जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा
कितनी बार बताऊँ तुझ को कैसा लगता है
उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं
नए सफ़र का हर इक मोड़ भी नया था मगर
प्यास को प्यार करना था केवल
मिरा साया मिरे बस में नहीं है
परसों मैं बाज़ार गया था दर्पन लेने की ख़ातिर
चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर