परसों मैं बाज़ार गया था दर्पन लेने की ख़ातिर
क्या बोलूँ दूकान पे ही मैं शर्म के मारे गड़ बैठा
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हम वही नादाँ हैं जो ख़्वाबों को धर कर ताक पर
भुला दिया है जो तू ने तो कुछ मलाल नहीं
हम तो उस के ज़ेहन की उर्यानियों पर मर मिटे
तमाम ख़ुश्क दयारों को आब देता था
उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं
प्यास को प्यार करना था केवल
नए सफ़र का हर इक मोड़ भी नया था मगर
जिस को अपने बस में करना था उस से ही लड़ बैठा
और तो अपनी क़िस्मत में क्या लिक्खा है
कितनी बार बताऊँ तुझ को कैसा लगता है
ग़नीमत से गुज़ारा कर रहा हूँ