कुछ भँवर यूँ उचट पड़े थे ज्यूँ
ख़ुद-कुशी पर हो कोई आमादा
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ग़नीमत से गुज़ारा कर रहा हूँ
परसों मैं बाज़ार गया था दर्पन लेने की ख़ातिर
चढ़ा कर तीर नज़रों की कमाँ पर
मिरा साया मिरे बस में नहीं है
भुला दिया है जो तू ने तो कुछ मलाल नहीं
तमाम ख़ुश्क दयारों को आब देता था
नए सफ़र का हर इक मोड़ भी नया था मगर
किस को फ़ुर्सत है जो हर्फ़ों की हरारत समझाए
हम तो उस के ज़ेहन की उर्यानियों पर मर मिटे
कितनी बार बताऊँ तुझ को कैसा लगता है
उस में रह कर उस के बाहर झाँकना अच्छा नहीं