है दसहरे में भी यूँ गर फ़रहत-ओ-ज़ीनत 'नज़ीर'
पर दिवाली भी अजब पाकीज़ा-तर त्यौहार है
Parveen Shakir
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थी छोटी उस के मुखड़े पर कल ज़ुल्फ़-ए-मुसलसल और तरह
इश्क़ फिर रंग वो लाया है कि जी जाने है
दिल यार की गली में कर आराम रह गया
हैं दम के साथ इशरत ओ उसरत हज़ार-हा
होली
बैठे हैं अब तो हम भी बोलोगे तुम न जब तक
जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो
कूचे में उस के बैठना हुस्न को उस के देखना
महबूब ने पैरहन में जब इत्र मला
आईना जो हाथ उस के ने ता-देर लिया
हम अश्क-ए-ग़म हैं अगर थम रहे रहे न रहे
बंजारा-नामा