जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो
ये दाग़ वो है कि दुश्मन को भी नसीब न हो
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रहे जो शब को हम उस गुल के सात कोठे पर
जब हम-नशीं हमारा भी अहद-ए-शबाब था
देख कर कुर्ते गले में सब्ज़ धानी आप की
जो दिल को दीजे तो दिल में ख़ुश हो करे है किस किस तरह से हलचल
जाड़े की बहारें
दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम
मज़मून-ए-सर्द-मेहरी-ए-जानाँ रक़म करूँ
न उस के नाम से वाक़िफ़ न उस की जा मा'लूम
हुई शक्ल अपनी ये हम-नशीं जो सनम को हम से हिजाब है
हँसे रोए फिरे रुस्वा हुए जागे बंधे छूटे
गए थे मिलने को शायद झिड़क दिया उस ने
ये छपके का जो बाला कान में अब तुम ने डाला है