क्यूँ नहीं लेता हमारी तू ख़बर ऐ बे-ख़बर
क्या तिरे आशिक़ हुए थे दर्द-ओ-ग़म खाने को हम
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जो दिल को दीजे तो दिल में ख़ुश हो करे है किस किस तरह से हलचल
याद आती हैं जब हमें वो पहली चाहें
जिस्म क्या रूह की है जौलाँ-गाह
न दिल में सब्र न अब दीदा-ए-पुर-आब में ख़्वाब
मुझे इस झमक से आया नज़र इक निगार-ए-रा'ना
देख कर कुर्ते गले में सब्ज़ धानी आप की
'नज़ीर' अब इस नदामत से कहूँ क्या
बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी मुफ़्लिसी बे-सामानी
कहा जो हम ने ''हमें दर से क्यूँ उठाते हो''
देख उसे रंग-ए-बहार ओ सर्व ओ गुल और जूएबार
खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल
जुदा किसी से किसी का ग़रज़ हबीब न हो