जिस्म क्या रूह की है जौलाँ-गाह
रूह क्या इक सवार-ए-पा-ब-रकाब
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हम हाल तो कह सकते हैं अपना प कहें क्या
दूर-अज़-तरीक़ मुझ को समझियो न ज़ाहिदा
अजब मुश्किल है क्या कहिए बग़ैर-अज़-जान देने के
बाग़ में लगता नहीं सहरा में घबराता है दिल
न टोको दोस्तो उस की बहार नाम-ए-ख़ुदा
कुलाल-ए-गर्दूं अगर जहाँ में जो ख़ाक मेरी का जाम करता
कल मिरे क़त्ल को इस ढब से वो बाँका निकला
तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने 'नज़ीर' आह
दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम
न उस के नाम से वाक़िफ़ न उस की जा मा'लूम
हो किस तरह न हम को हर दम हवा-ए-मतलब
धुआँ कलेजे से मेरे निकला जला जो दिल बस कि रश्क खा कर