रखती है जो ख़ुश चाह तुम्हारी हम को
और करती है शाद बारी बारी हम को
कुछ देर जो कि थी हम ने दिल देते वक़्त
अब तक है उसी की सरशारी हम को
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हम में भी और उन्हों में पहले जो यारियाँ थीं
ईद
ये जो उठती कोंपल है जब अपना बर्ग निकालेगी
'नज़ीर' अब इस नदामत से कहूँ क्या
गर यार से हर रोज़ मुलाक़ात नहीं
देख कर कुर्ती गले में सब्ज़ धानी आप की
रुख़ परी चश्म परी ज़ुल्फ़ परी आन परी
वो सनम जो मेहर-एज़ार है उसे हम से मिलने में आर है
हम ऐसे कब थे कि ख़ुद बदौलत यहाँ भी करते क़दम नवाज़िश
उस ज़ुल्फ़ ने हम से ले के दिल बस्ता किया
न उस के नाम से वाक़िफ़ न उस की जा मा'लूम
खोली जो टुक ऐ हम-नशीं उस दिल-रुबा की ज़ुल्फ़ कल