हसरत-ए-मौसम-ए-गुलाब हूँ मैं
सच न हो पाएगा वो ख़्वाब हूँ मैं
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फिर तिरे रेशमी लब मुझ को मनाने आए
उसी की रौशनी रहती है इस क़दर मुझ में
कैसे होती है शब की सहर देखते
मारो पत्थर भी तो नहीं हिलता
''हर तमन्ना दिल से रुख़्सत हो गई''
बहुत सोचा किए क्या ज़िंदगी है
घर से निकले थे आरज़ू कर के
तुम से जाना कि इक किताब हूँ मैं
जाने अब खो गया किधर पानी
इक फ़क़त उस के रूठ जाने पर