घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
लाख चाहा कि मिरे क़द के बराबर उतरे
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अपना मुहासबा कभी करने नहीं दिया
दिखाओ सूरत-ए-ताज़ा बयान से पहले
निखरना अक़्ल-ओ-ख़िरद का अगर ज़रूरी है
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
अपनी ही ज़ात के महबस में समाने से उठा
शो'लों की तरह हैं कभी शबनम की तरह
एक मुद्दत से जो सीने में बसा है क्या है
नक़ाब चेहरे से मेरे हटा रही है ग़ज़ल
तलाशे जा रहे हैं अहद-ए-रफ़्ता
हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
मसअले मेरे सभी हल कर दे
आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं