तलाशे जा रहे हैं अहद-ए-रफ़्ता
ज़मीनों की खुदाई हो रही है
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Gulzar
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हमें हिजरत समझ में इतनी आई
आशोब-ए-ज़माना से है डरना कैसा
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
नक़ाब चेहरे से मेरे हटा रही है ग़ज़ल
निखरना अक़्ल-ओ-ख़िरद का अगर ज़रूरी है
शो'लों की तरह हैं कभी शबनम की तरह
जब धूप सर पे थी तो अकेला था में 'उबैद'
गुमरही का मिरी सामान हुआ जाता है
जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
मसअले मेरे सभी हल कर दे
ईमाँ का तक़ाज़ा है कि ख़ुद्दार बनो
दिखाओ सूरत-ए-ताज़ा बयान से पहले