जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
वहीं पहुँच के हयात इक ख़याल-ए-ख़ाम हुई
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घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
आँगन आँगन ख़ून के छींटे चेहरा चेहरा बे-चेहरा
ईमाँ का तक़ाज़ा है कि ख़ुद्दार बनो
आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं
नक़ाब चेहरे से मेरे हटा रही है ग़ज़ल
बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
शोख़ी किसी में है न शरारत है अब 'उबैद'
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
पहले कुछ दिन मिरे ज़ख़्मों की नुमाइश होगी
टूटता रहता है मुझ में ख़ुद मिरा अपना वजूद
दिखाओ सूरत-ए-ताज़ा बयान से पहले