बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
ग़म और बढ़ गया है जो त्यौहार आए हैं
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अपनी ही ज़ात के महबस में समाने से उठा
आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं
यही इक सानेहा कुछ कम नहीं है
मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे
निखरना अक़्ल-ओ-ख़िरद का अगर ज़रूरी है
शोख़ी किसी में है न शरारत है अब 'उबैद'
हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
पहले कुछ दिन मिरे ज़ख़्मों की नुमाइश होगी
जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
हम बुरा करते या भला करते
घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
शुऊर तक अभी उन की कहाँ रसाई है