हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
समझो न इसे मंज़िल-ए-आख़िर की तरह
दुनिया जिसे कहते हैं सराए है 'उबैद'
रहना है यहाँ एक मुसाफ़िर की तरह
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निखरना अक़्ल-ओ-ख़िरद का अगर ज़रूरी है
ख़ुशबू तिरे लहजे की मिरे फ़न में बसी है
बड़े ही नाज़ से लाया गया हूँ
अहबाब ने सौ तरह हमें ख़्वार किया
आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं
हम दिल का हर इक ज़ख़्म छुपा लेते थे
जब धूप सर पे थी तो अकेला था में 'उबैद'
नक़ाब चेहरे से मेरे हटा रही है ग़ज़ल
तलाशे जा रहे हैं अहद-ए-रफ़्ता
घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
ईमाँ का तक़ाज़ा है कि ख़ुद्दार बनो
अपनी ही ज़ात के महबस में समाने से उठा