जब धूप सर पे थी तो अकेला था में 'उबैद'
अब छाँव आ गई है तो सब यार आए हैं
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जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
अपनी ही ज़ात के महबस में समाने से उठा
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
हमें तो ख़्वाब का इक शहर आँखों में बसाना था
ईमाँ का तक़ाज़ा है कि ख़ुद्दार बनो
घर के अंदर भोली-भाली सूरतें अच्छी लगीं
बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
नज़र में दूर तलक रहगुज़र ज़रूरी है
घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे