ईमाँ का तक़ाज़ा है कि ख़ुद्दार बनो
ज़र-दारों की दहलीज़ पे सज्दा न करो
ज़हराब मिले या रसन-ओ-दार 'उबैद'
हरगिज़ किसी क़ातिल को मसीहा न कहो
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अहबाब ने सौ तरह हमें ख़्वार किया
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
यही इक सानेहा कुछ कम नहीं है
कोई दिमाग़ से कोई शरीर से हारा
है आज अंधेरा हर जानिब और नूर की बातें करते हैं
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
नज़र में दूर तलक रहगुज़र ज़रूरी है
जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
मसअले मेरे सभी हल कर दे
शो'लों की तरह हैं कभी शबनम की तरह
ख़ुशबू तिरे लहजे की मिरे फ़न में बसी है