यही इक सानेहा कुछ कम नहीं है
हमारा ग़म तुम्हारा ग़म नहीं है
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मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे
हम बुरा करते या भला करते
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
शुऊर तक अभी उन की कहाँ रसाई है
तलाशे जा रहे हैं अहद-ए-रफ़्ता
पहले कुछ दिन मिरे ज़ख़्मों की नुमाइश होगी
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
बड़े ही नाज़ से लाया गया हूँ
बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
एक मुद्दत से जो सीने में बसा है क्या है
मसअले मेरे सभी हल कर दे