टूटता रहता है मुझ में ख़ुद मिरा अपना वजूद
मेरे अंदर कोई मुझ से बरसर-ए-पैकार है
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आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं
मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे
आशोब-ए-ज़माना से है डरना कैसा
कोई दिमाग़ से कोई शरीर से हारा
जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
बड़े ही नाज़ से लाया गया हूँ
मेरे जज़्बात आँसुओं वाले
अहबाब ने सौ तरह हमें ख़्वार किया
एक मुद्दत से जो सीने में बसा है क्या है
शो'लों की तरह हैं कभी शबनम की तरह
दिखाओ सूरत-ए-ताज़ा बयान से पहले
ईमाँ का तक़ाज़ा है कि ख़ुद्दार बनो