आशोब-ए-ज़माना से है डरना कैसा
बुज़दिल की तरह शिकवा है करना कैसा
मरना तो बहर-हाल है इक रोज़ 'उबैद'
मरने से मगर पहले ही मरना कैसा
Habib Jalib
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अहबाब ने सौ तरह हमें ख़्वार किया
मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे
आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं
नज़र में दूर तलक रहगुज़र ज़रूरी है
जब धूप सर पे थी तो अकेला था में 'उबैद'
शुऊर तक अभी उन की कहाँ रसाई है
जुस्तुजू के सफ़र में रहते हैं
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
शो'लों की तरह हैं कभी शबनम की तरह
है आज अंधेरा हर जानिब और नूर की बातें करते हैं
ईमाँ का तक़ाज़ा है कि ख़ुद्दार बनो