आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं
हर रंज को हँस हँस के सहा करते हैं
हर ग़म हमें पैग़ाम-ए-तरब देता है
हम ग़म के तलबगार रहा करते हैं
Mir Taqi Mir
Gulzar
Allama Iqbal
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Habib Jalib
Faiz Ahmad Faiz
Mohsin Naqvi
Jaun Eliya
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हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
शो'लों की तरह हैं कभी शबनम की तरह
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
जुस्तुजू के सफ़र में रहते हैं
अहबाब ने सौ तरह हमें ख़्वार किया
बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
जब धूप सर पे थी तो अकेला था में 'उबैद'
घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
है आज अंधेरा हर जानिब और नूर की बातें करते हैं
जहाँ पहुँचने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई
यही इक सानेहा कुछ कम नहीं है