सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़
फिर ये हुआ मैं वाक़िफ़-ए-आदाब हो गया
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तलाशे जा रहे हैं अहद-ए-रफ़्ता
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
है आज अंधेरा हर जानिब और नूर की बातें करते हैं
मंज़िलें और भी हैं वहम-ओ-गुमाँ से आगे
टूटता रहता है मुझ में ख़ुद मिरा अपना वजूद
गुमरही का मिरी सामान हुआ जाता है
हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
हमें हिजरत समझ में इतनी आई
शुऊर तक अभी उन की कहाँ रसाई है
शोख़ी किसी में है न शरारत है अब 'उबैद'
यही इक सानेहा कुछ कम नहीं है
आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं