हमें हिजरत समझ में इतनी आई
परिंदा आब-ओ-दाना चाहता है
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ख़ुशबू तिरे लहजे की मिरे फ़न में बसी है
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
एक मुद्दत से जो सीने में बसा है क्या है
बड़े ही नाज़ से लाया गया हूँ
घर के अंदर भोली-भाली सूरतें अच्छी लगीं
यही इक सानेहा कुछ कम नहीं है
आँगन आँगन ख़ून के छींटे चेहरा चेहरा बे-चेहरा
जब धूप सर पे थी तो अकेला था में 'उबैद'
मेरे जज़्बात आँसुओं वाले
बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
नज़र में दूर तलक रहगुज़र ज़रूरी है