शोख़ी किसी में है न शरारत है अब 'उबैद'
बच्चे हमारे दौर के संजीदा हो गए
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Mir Taqi Mir
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हम दिल का हर इक ज़ख़्म छुपा लेते थे
पुर-कैफ़ कहीं के भी नज़ारे न रहेंगे
घर के अंदर भोली-भाली सूरतें अच्छी लगीं
हमें तो ख़्वाब का इक शहर आँखों में बसाना था
हमें हिजरत समझ में इतनी आई
टूटता रहता है मुझ में ख़ुद मिरा अपना वजूद
हिजरत तुम्हें करनी है मुहाजिर की तरह
अहबाब ने सौ तरह हमें ख़्वार किया
नज़र में दूर तलक रहगुज़र ज़रूरी है
एक मुद्दत से जो सीने में बसा है क्या है
ख़ुशबू तिरे लहजे की मिरे फ़न में बसी है