अपनी ही ज़ात के महबस में समाने से उठा
दर्द एहसास का सीने में दबाने से उठा
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शोख़ी किसी में है न शरारत है अब 'उबैद'
मेरे जज़्बात आँसुओं वाले
हमें तो ख़्वाब का इक शहर आँखों में बसाना था
पुर-कैफ़ कहीं के भी नज़ारे न रहेंगे
शो'लों की तरह हैं कभी शबनम की तरह
घटती बढ़ती रही परछाईं मिरी ख़ुद मुझ से
नज़र में दूर तलक रहगुज़र ज़रूरी है
शुऊर तक अभी उन की कहाँ रसाई है
आलाम-ओ-मसाइब से लड़ा करते हैं
बच्चों को हम न एक खिलौना भी दे सके
तामीर-ओ-तरक़्क़ी वाले हैं कहिए भी तो उन को क्या कहिए
सोहबत में जाहिलों की गुज़ारे थे चंद रोज़