चला दुख़्तर-ए-रज़ को ले कर जो साक़ी
फ़रिश्ता हुए साथ घर देखने को
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जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
जो दिन को निकलो तो ख़ुर्शीद गिर्द-ए-सर घूमे
जब हो चुकी शराब तो मैं मस्त मर गया
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
क्या लुत्फ़ जो ग़ैर पर्दा खोले
इश्क़ में दिल बन के दीवाना चला
लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
दिल से हर-दम हमें आवाज़-बुका आती है
ख़ुम न बन कर ख़ुद-ग़रज़ हो जाइए