मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
नज़र बचा के तू ऐ दिल किधर को जाता है
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साक़ी क़दह-ए-शराब दे दे
क्या लुत्फ़ जो ग़ैर पर्दा खोले
जब हो चुकी शराब तो मैं मस्त मर गया
इश्क़ में दिल बन के दीवाना चला
चला दुख़्तर-ए-रज़ को ले कर जो साक़ी
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
चमन में दहर के आ कर मैं क्या निहाल हुआ
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
ख़ुम न बन कर ख़ुद-ग़रज़ हो जाइए