समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
ये चाँद उस के साथ चला जो जिधर गया
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जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
ख़ुम न बन कर ख़ुद-ग़रज़ हो जाइए
जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है
जब हो चुकी शराब तो मैं मस्त मर गया
मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
साक़ी क़दह-ए-शराब दे दे
क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने