सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया
ख़ंदा-ए-बेहूदा पर तोड़े गए दंदान-ए-सुब्ह
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चमन में दहर के आ कर मैं क्या निहाल हुआ
जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है
जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
दिल से हर-दम हमें आवाज़-बुका आती है
क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
जो दिन को निकलो तो ख़ुर्शीद गिर्द-ए-सर घूमे
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी