जो दिन को निकलो तो ख़ुर्शीद गिर्द-ए-सर घूमे
चलो जो शब को तो क़दमों पे माहताब गिरे
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लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया
क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
इश्क़ में दिल बन के दीवाना चला
जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
दिल से हर-दम हमें आवाज़-बुका आती है
मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली