लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
कुफ़्र टूटा ख़ुदा ख़ुदा कर के
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बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
साक़ी क़दह-ए-शराब दे दे
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है
क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
इश्क़ में दिल बन के दीवाना चला
जो दिन को निकलो तो ख़ुर्शीद गिर्द-ए-सर घूमे
चमन में दहर के आ कर मैं क्या निहाल हुआ
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर