जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
जो ख़त में हाल लिखा था वो ख़त का हाल हुआ
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लाए उस बुत को इल्तिजा कर के
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया
जब हो चुकी शराब तो मैं मस्त मर गया
दिल से हर-दम हमें आवाज़-बुका आती है
ख़ुम न बन कर ख़ुद-ग़रज़ हो जाइए
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
क़ुर्स-ए-ख़ुर को देख कर तस्कीं रख ऐ मेहमान-ए-सुब्ह
चमन में दहर के आ कर मैं क्या निहाल हुआ
मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
कूचा-ए-जानाँ की मिलती थी न राह