कूचा-ए-जानाँ की मिलती थी न राह
बंद कीं आँखें तो रस्ता खुल गया
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सुब्ह-दम ग़ाएब हुए 'अंजुम' तो साबित हो गया
चमन में दहर के आ कर मैं क्या निहाल हुआ
दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
मकान सीने का पाता हूँ दम-ब-दम ख़ाली
जो दिन को निकलो तो ख़ुर्शीद गिर्द-ए-सर घूमे
क्या लुत्फ़ जो ग़ैर पर्दा खोले
इश्क़ में दिल बन के दीवाना चला
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
जब हो चुकी शराब तो मैं मस्त मर गया