मअ'नी-ए-रौशन जो हों तो सौ से बेहतर एक शेर
मतला-ए-ख़ुर्शीद काफ़ी है पए-दीवान-ए-सुब्ह
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साक़ी क़दह-ए-शराब दे दे
चला दुख़्तर-ए-रज़ को ले कर जो साक़ी
दोज़ख़ ओ जन्नत हैं अब मेरी नज़र के सामने
समझा है हक़ को अपने ही जानिब हर एक शख़्स
जब न जीते-जी मिरे काम आएगी
इश्क़ में दिल बन के दीवाना चला
जुनूँ की चाक-ज़नी ने असर किया वाँ भी
ख़ुम न बन कर ख़ुद-ग़रज़ हो जाइए
बुतों की गली छोड़ कर कौन जाए
दिल-ब-दिल आईना है दैर ओ हरम
जब मिले दो दिल मुख़िल फिर कौन है