मुर्दा पड़े थे लोग घरों की पनाह में
दरिया वफ़ूर-ए-ग़ैज़ से बिफरा था चार सू
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एहसास-ए-ज़ियाँ चैन से सोने नहीं देता
शबनम भीगी घास पे चलना कितना अच्छा लगता है
जिस का बदन गुलाब था वो यार भी नहीं
यूँ तो अपनों सा कुछ नहीं इस में
लर्ज़ां है किसी ख़ौफ़ से जो शाम का चेहरा
जिधर देखो लहू बिखरा हुआ है
ज़र्द पेड़ों पे शाम है गिर्यां
दुश्मनी की इस हवा को तेज़ होना चाहिए
ख़ुनुक हवा का ये झोंका शरार कैसे हुआ
काली रातों में फ़सील-ए-दर्द ऊँची हो गई
मुझे तो यूँ भी इसी राह से गुज़रना था