जिधर देखो लहू बिखरा हुआ है
निशाना कौन गोली का बना है
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दुश्मनी की इस हवा को तेज़ होना चाहिए
किसी का नक़्श अंधेरे में जब उभर आया
ख़ुनुक हवा का ये झोंका शरार कैसे हुआ
हवा से ज़र्द पत्ते गिर रहे हैं
अजीब रुत है दरख़्तों को बे-ज़बाँ देखूँ
तेरी सदा की आस में इक शख़्स रोएगा
पहाड़ों से उतरती शाम की बेचारगी देखें
लर्ज़ां है किसी ख़ौफ़ से जो शाम का चेहरा
एहसास-ए-ज़ियाँ चैन से सोने नहीं देता
शबनम भीगी घास पे चलना कितना अच्छा लगता है
जिस का बदन गुलाब था वो यार भी नहीं
मुझे तो यूँ भी इसी राह से गुज़रना था