जले मकानों में भूत बैठे बड़ी मतानत से सोचते हैं
कि जंगलों से निकल के आने की क्या ज़रूरत थी आदमी को
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पहाड़ों से उतरती शाम की बेचारगी देखें
ज़र्द पेड़ों पे शाम है गिर्यां
चाँदी जैसी झिलमिल मछली पानी पिघले नीलम सा
रफ़्ता रफ़्ता सब मनाज़िर खो गए अच्छा हुआ
शबनम भीगी घास पे चलना कितना अच्छा लगता है
ख़ुनुक हवा का ये झोंका शरार कैसे हुआ
आँधियाँ आती हैं और पेड़ गिरा करते हैं
आँख पत्थर की तरह अक्स से ख़ाली होगी
रंगीन ख़्वाब आस के नक़्शे जला भी दे
लर्ज़ां है किसी ख़ौफ़ से जो शाम का चेहरा
मुर्दा पड़े थे लोग घरों की पनाह में