यूँ तो अपनों सा कुछ नहीं इस में
फिर भी ग़ैरों से वो अलग सा है
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जिस का बदन गुलाब था वो यार भी नहीं
रंगीन ख़्वाब आस के नक़्शे जला भी दे
जले मकानों में भूत बैठे बड़ी मतानत से सोचते हैं
रफ़्ता रफ़्ता सब मनाज़िर खो गए अच्छा हुआ
पहाड़ों से उतरती शाम की बेचारगी देखें
ज़र्द पेड़ों पे शाम है गिर्यां
मुझे तो यूँ भी इसी राह से गुज़रना था
वो राब्ते भी अनोखे जो दूरियाँ बरतें
आँख पत्थर की तरह अक्स से ख़ाली होगी
ख़ुनुक हवा का ये झोंका शरार कैसे हुआ
किसी का नक़्श अंधेरे में जब उभर आया
काली रातों में फ़सील-ए-दर्द ऊँची हो गई