रिंदों में नहीं कोई रक़ाबत साक़ी
ज़िद है कि पिएँगे बा-जमाअत साक़ी
किया ज़ुल्म है मोहतसिब के बहकाने पर
इस को भी समझ गया सियासत साक़ी
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क्या रंग-ए-ज़मीन-ओ-आसमाँ है साक़ी
ख़ामोशी बोहरान-ए-सदा है तुम भी चुप हो हम भी चुप
अभी से सुब्ह-ए-गुलशन रक़्स-फ़रमा है निगाहों में
होंटों को शराब अब पिला दे साक़ी
बाँध कर कफ़न सर से यूँ खड़ा हूँ मक़्तल में
छुप कर न रह सके निगह-ए-अहल-ए-फ़न से हम
बुलबुल की ज़बाँ तक जला डाली है
सख़्त-जाँ वो हूँ कि मक़्तल से सर-अफ़राज़ आया
कश्ती-ए-हयात खे सकूँगा क्यूँ-कर
मस्ती में नज़र चमक रही है साक़ी
बुत-गरी-ए-जमाल में गुज़रा