सख़्त-जाँ वो हूँ कि मक़्तल से सर-अफ़राज़ आया
कितनी तलवारों को देता हुआ आवाज़ आया
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होंटों को शराब अब पिला दे साक़ी
दिल ही की तरह मुँह भी है काला देखो
क्या रंग-ए-ज़मीन-ओ-आसमाँ है साक़ी
सय्यारों में साहिल है वो अज़्मत तुझ को
शिकायत कर रहे हैं सज्दा-हा-ए-राएगाँ मुझ से
ख़ामोशी बोहरान-ए-सदा है तुम भी चुप हो हम भी चुप
ब़ाँबी
इस्मत पे तिरी निसार होना है मुझे
सहराओं की बात ज़ारों में कही
दिल की धड़कनों से इक दास्ताँ बनाना है
जलते रहना काम है दिल का बुझ जाने से हासिल क्या