सहराओं की बात ज़ारों में कही
रूदाद-ए-हयात इस्तिआरों में कही
हैरत है ज़माने को आख़िर क्यूँ-कर
'परवेज़' ने दास्तान इशारों में कही
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फ़सुर्दा है इल्म हर्फ़-हा-ए-किताब भी बुझ के रह गए हैं
बाँध कर कफ़न सर से यूँ खड़ा हूँ मक़्तल में
कश्ती-ए-हयात खे सकूँगा क्यूँ-कर
निपटेंगे दिल से मार्का-ए-रह-गुज़र के ब'अद
जलते रहना काम है दिल का बुझ जाने से हासिल क्या
रिंदों में नहीं कोई रक़ाबत साक़ी
इस्मत पे तिरी निसार होना है मुझे
मंज़िल भी मिलेगी रस्ते में तुम राहगुज़र की बात करो
सैलाब-ए-बला रक़्स न फ़रमाए कहीं
ऐ बे-दिलो हरीफ़-ए-शब-ए-तार क्यूँ हुए
मस्ती में नज़र चमक रही है साक़ी
सख़्त-जाँ वो हूँ कि मक़्तल से सर-अफ़राज़ आया