न जाने कह गए क्या आप मुस्कुराने में
है दिल को नाज़ कि जान आ गई फ़साने में
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शिकायत कर रहे हैं सज्दा-हा-ए-राएगाँ मुझ से
मैं मुंकिर-ए-अस्लाफ़ नहीं हूँ यारो
सुना है उन के लब पर कल था ज़िक्र-ए-मुख़्तसर मेरा
बहरा गोया
कश्ती-ए-हयात खे सकूँगा क्यूँ-कर
गुज़रा है कौन फूल खिलाता ख़िराम से
फ़सुर्दा है इल्म हर्फ़-हा-ए-किताब भी बुझ के रह गए हैं
सुन सकते हो नग़्मा आज भी तुम मेरा
लज़्ज़त में ख़ुदी की खो गया है ज़ाहिद
रोता ही रहूँगा मुस्कुराने तो दो
ज़िंदगी ने फ़स्ल-ए-गुल को भी पशेमाँ कर दिया
निपटेंगे दिल से मार्का-ए-रह-गुज़र के ब'अद