उस की ख़्वाहिश है कि अब लोग न रोएँ न हँसें
बे-हिसी वक़्त की आवाज़ बना दी जाए
Faiz Ahmad Faiz
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Jaun Eliya
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दिल अगर कुछ माँग लेने की इजाज़त माँगता
अदाकारी में भी सौ कर्ब के पहलू निकल आए
अयाँ हम पर न होने की ख़ुशी होने लगी है
घर की जब याद सदा दे तो पलट कर आ जाएँ
शहर तलब करे अगर तुम से इलाज-ए-तीरगी
ख़ून से जब जला दिया एक दिया बुझा हुआ
ख़िर्मन-ए-जाँ के लिए ख़ुद ही शरर हो गए हम
ज़िंदगी ने झेले हैं सब अज़ाब दुनिया के
इक सज़ा और असीरों को सुना दी जाए
सानेहा नहीं टलता सानेहे पे रोने से