मेरा मज़हब इश्क़ का मज़हब जिस में कोई तफ़रीक़ नहीं
मेरे हल्क़े में आते हैं 'तुलसी' भी और 'जामी' भी
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कहाँ है कोई ख़ुदा का ख़ुदा के बंदों में
शिकस्ता ख़्वाब के मलबे में ढूँढता क्या है
वो जो सब का बहुत चहीता था
साज़ से मेरे ग़लत नग़्मों की उम्मीद न कर
होने लगे हैं रस्ते रस्ते, आपस के टकराव बहुत
एक पौदा जो उगा है उसे पानी देना
उस के आँगन में रौशनी थी मगर
किसी मंज़िल में भी हासिल न हुआ दिल को क़रार
मौसम अजीब रहता है दल के दयार का
उबलते पानियों में हूँ कहाँ उबाल की तरह
सुलग रही है ज़मीं या सिपहर आँखों में
सब्ज़ मौसम से मुझे क्या लेना