सब्ज़ मौसम से मुझे क्या लेना
शाख़ से अपनी जुदा हूँ बाबा
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उस के आँगन में रौशनी थी मगर
मेरा मज़हब इश्क़ का मज़हब जिस में कोई तफ़रीक़ नहीं
थोड़ी सी शोहरत भी मिली है थोड़ी सी बदनामी भी
उबलते पानियों में हूँ कहाँ उबाल की तरह
मौसम अजीब रहता है दल के दयार का
वो जो सब का बहुत चहीता था
एक पौदा जो उगा है उसे पानी देना
होने लगे हैं रस्ते रस्ते, आपस के टकराव बहुत
सुलग रही है ज़मीं या सिपहर आँखों में
कहाँ है कोई ख़ुदा का ख़ुदा के बंदों में
किसी मंज़िल में भी हासिल न हुआ दिल को क़रार
शिकस्ता ख़्वाब के मलबे में ढूँढता क्या है